Monday, July 29, 2019

My Notes by Dharendra Ratandeep Semester III (Arts)

MY NOTES
29 July 2019, 5:30 PM

नए दौर का भ्रमण
आज निकाला हूँ कुछ दिनो के अंतराल से 
कदमों को संभाले हुए, 
देखते हुए सम्प्रदाय की गतिविधियों को 
मैं नग्न आँखों से, 
कहीँ कुछ देख के मन चला तो 
कहीं को लाखों बार दिल जला, 
आगे दौड़ती दुनिया देखी मैंने टुकड़ो में 
कुछ पीछे न था,
योद्धाओं को तो सबने पूछा पर 
निर्बल कहाँ है,
फिर लगा होगा कहीं दुनिया से परे 
अस्वीकृती का डर जो हैं,
फ़िर कुछ फासला तय किया जो मैंने 
उस जंगल से आज,
जहाँ घात लगाए बैठे थे वो ज़ालिम जानवर
जिन्होंने ली है आज़ादी उन बेटियोँ की,
इस संक्षिप्त यात्रावृत्तांत पश्चात मेरा 
जो आना हुआ,
एक ख्वाब देख लिया 
इस प्रवंचना में खुद को फसता देख लिया ।

25 July 2019, 4:48 PM

अज्ञेय का प्रेम 
आज वो आयी थी उस स्मृति की तरह
जिसका मंदिर हुआ करता था इस मन में, 
मैली कर चली वो चादर भी सच पूछो तो 
कुछ लफ्ज़ अब बाकी नही स्तवन में, 
प्रकृति ने भी छोड़ना सीखा दिया राहो को 
कि शालीनता ही परमार्थ लगी, 
रातों से सवाल था कुछ दिनों पहले
हँसी आयी जब सवाल जागने का पूछा,
उसका आना कुछ खास न था 
पर अवधि का पीछे जाना अलग था, 
हो सकता है उन शाखाओ सा हो 
जिन पर निरंतर पतियाँ जगह घेर लेती है, 
पर अब रहा कहा है कुछ कहने में 
पूरी हो चुकी वो बात भी अब तो, 
पर मन की निरंतरता की खोज में भी हूँ
तभी महीनों में एक नज़र देखता हूँ, 
आदतों से छुपकर ना थी वो 
ख़्वाईशो से हट कर ना थी वो, 
पर अब तो उन बातों का मलाल भी क्या 
बस मेरी तनहाई और क्या ।

19 July 2019, 7:00 AM

शहर की उस नई भीड़ में 
बह चला वो इस नई भीड़ में
की हँसी भी ज़ुबाँ तक ना आयी,
गया था वो शहर को कुछ यूँ
की पता न था कि लौटेगा भी,
कुछ टेढ़ापन ना था उसकी चाल में 
कुछ सरलता थी उसकी अपनी, 
आदत से मजबूर राही लगता था 
तभी बह चला इस नई भीड़ में, 
इस छल भरे शहर को चला था 
अपनी माँ से वादा करके वो,
शायद पहचान ना सका कारवाँ
तभी बह चला इस नई भीड़ में, 
अब तो ना आ पायेगा कभी 
सालो का इंतज़ार भी कम होगा, 
है यह रह-रह अफ़सोस बहुत की 
कयों बह चला इस नई भीड़ में,
लोगो से मर्मर शब्दो मे कह चला 
इस नई भीड़ में क्यों बह चला । 

18 July 2019, 8:25 PM

कुछ साल पहले
हर गम को परे रख कर चला 
ना जाने क्या बात थी ऐसी, 
की होश में बेहोश रहा इस क़दर
धुन अपनी को हँस कर चला 
कुछ था जो कहना था उसे 
उसकी आँखों मे रहना था उसे,
पर ठुकरा दिया कुछ यूँ
की बाकी आशा छोड़ निराशा को चला 
उसे बताना जरूरी था सब 
अंत मेरे साथ का दिखना जरूरी था,
पर घिर गया उलझनों में इतना
की राह अपनी यूँ मोड़ कर चला 
शायद रोशनी की तलाश में
कुछ संघर्षो के निकटतम होते हुए,
होता है यह अधूरा-पन क्या 
ये दुनिया को दिखाता चला 
हर गम को परे रख कर चला..
                                                                                                                                               Dharendra Ratandeep
Semester III(Arts)

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